कहानी संग्रह >> बादलों के रंग, हवाओं के संग बादलों के रंग, हवाओं के संगअमरेंद्र किशोर
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भारत की लोकोपयोगी परंपराओं-आस्थाओं एवं मान्यताओं को तक्रसंगत, जीवंत और रोचक रूप में देखने का सुंदर प्रयास है - बादलों के रंग, हवाओं के संग
बादलों के रंग, हवाओं के संग भारत के बेहद समृद्ध लोकज्ञान, उसकी कालातीत परंपरा और उनकी मौजूदगी की कहानी है। यह कहानी स्मृति, विश्वास और अनुभवजनित है जिसके प्राण में है संवेदना और मानवीयता। यह कहानी है उस समाज की जो अपने मनमौजी स्वभाव, वर्जनाहीन जीवन और सामूहिक सोच के दर्शन से जीता है। उसकी जीवन-शैली में है आनंद, उत्सव और पारस्परिक समर्पण, जो रोज रक्तसिक्त होकर बांसुरी और मादल, गीत और नृत्य, प्रकृति और उससे जुड़ी परम्परा में डूब जाता है। शेष दुनिया से बेखबर होकर।
लेखक अमरेन्द्र किशोर का बचपन बिहार और झारखंड के गाँवों और आदिवासी समाज में बीता। बीते करीब दो दशकों से वे वन्य अंचलों की आबादी की परंपरागत आस्थाओं के संकलन और उसकी अस्मिता को समृद्ध करने में जुटे हैं। अपूर्व भावमयता के साथ गहन संवेदना में डूबकर अमरेंद्र उन इलाकों के जीवन से उन तथ्यों को जुटाने में समर्थ रहे हैं जिनका कोई विकल्प नहीं है। खासतौर से श्रम विभाजन की कट्टरता के जमाने में और पूँजीवाद के इस दौर में, जब बाजारवाद सामाजिक स्वभाव बन चुका है। इस किताब से जीने की चाहत पैदा होती है। इससे जीवन के कई रहस्य खुलते हैं और यथार्थ और कर्मकांड, तर्कसंगत ज्ञान और अंधविश्वास का फर्क समझ में आथा है।
जल-जंगल-जमीन-जन और जानवर के अन्योन्याश्रित रिश्तों के पैरोकार अमरेंद्न किशोर इस किताब से यह साबित करने में सफल रहे हैं कि लोकज्ञान की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितना सभ्यता का इतिहास और जितनी पुरानी संस्कृति की कहानी। संस्कृति से जुदा कुछ भी नहीं - न पेड़, न धर्म और न लोक आस्थाएँ। पूरी किताब में लेखक एक कुशल निबन्धकार नजर आते हैं तो साथ में एक समझदार समाजविज्ञानी भी। भारत की लोकोपयोगी परंपराओं-आस्थाओं एवं मान्यताओं को तर्कसंगत, जीवंत और रोचक रूप में देखने का सुंदर प्रयास है - बादलों के रंग, हवाओं के संग
लेखक अमरेन्द्र किशोर का बचपन बिहार और झारखंड के गाँवों और आदिवासी समाज में बीता। बीते करीब दो दशकों से वे वन्य अंचलों की आबादी की परंपरागत आस्थाओं के संकलन और उसकी अस्मिता को समृद्ध करने में जुटे हैं। अपूर्व भावमयता के साथ गहन संवेदना में डूबकर अमरेंद्र उन इलाकों के जीवन से उन तथ्यों को जुटाने में समर्थ रहे हैं जिनका कोई विकल्प नहीं है। खासतौर से श्रम विभाजन की कट्टरता के जमाने में और पूँजीवाद के इस दौर में, जब बाजारवाद सामाजिक स्वभाव बन चुका है। इस किताब से जीने की चाहत पैदा होती है। इससे जीवन के कई रहस्य खुलते हैं और यथार्थ और कर्मकांड, तर्कसंगत ज्ञान और अंधविश्वास का फर्क समझ में आथा है।
जल-जंगल-जमीन-जन और जानवर के अन्योन्याश्रित रिश्तों के पैरोकार अमरेंद्न किशोर इस किताब से यह साबित करने में सफल रहे हैं कि लोकज्ञान की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितना सभ्यता का इतिहास और जितनी पुरानी संस्कृति की कहानी। संस्कृति से जुदा कुछ भी नहीं - न पेड़, न धर्म और न लोक आस्थाएँ। पूरी किताब में लेखक एक कुशल निबन्धकार नजर आते हैं तो साथ में एक समझदार समाजविज्ञानी भी। भारत की लोकोपयोगी परंपराओं-आस्थाओं एवं मान्यताओं को तर्कसंगत, जीवंत और रोचक रूप में देखने का सुंदर प्रयास है - बादलों के रंग, हवाओं के संग
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